Tuesday, May 13, 2014

फिर कभी

फिर कभी बिखरा दिखूं तो मुझको सहेजना
फिर कभी बहका दिखू तो मुझको सम्हालना

फिर कभी तो धूप कड़ी तो साया कर देना
फिर कभी हो रात घनी तो चाँद टाँकना

फिर कभी चुप सा लगूं, दो बोल बोलना
फिर कभी सहमा दिखूं तो हाथ थामना

बस इतना ही कहना है, ख्वाहिश समझो या इल्तज़ा
अब ये तुम पर है देखो, मानना न मानना

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